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भारत का इतिहास
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भारत का इतिहास: स्वर्णिम सभ्यता और शासन का विश्लेषण

By RS Pandey
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भारत का इतिहास- स्वर्णिम काल का विश्लेषण

भारत का इतिहास दुनिया भर के विद्वानों का कौतुहल का केंद्र रहा है । इसका स्वर्णिम काल हम सब के गर्व का विषय रहा है ।

लगभग 200 से ज्यादा विद्वानों/ इतिहास विशेषज्ञों ने भारत का इतिहास विषय पर शोध किया है। इनमें से कुछ विद्वानों/ इतिहास विशेषज्ञों की बात आपके सामने रखूँगा।

ये सारे विद्वानों/ इतिहास विशेषज्ञ भारत से बाहर के हैं, कुछ अंग्रेज़ हैं, कुछ स्कॉटिश हैं, कुछ अमेरिकन हैं, कुछ फ्रेंच हैं, कुछ जर्मन हैं। ऐसे दुनिया के अलग अलग देशों के विद्वानों/ इतिहास विशेषज्ञों ने भारत का इतिहास सम्बंधित जो कुछ भी कहा और लिखा है उसकी जानकारी मुझे देनी है।

Golden age of india

1.  सबसे पहले एक अंग्रेज़ जिसका नाम है ‘थॉमस बैबिंगटन मैकाले’, ये भारत में आया और करीब 17 साल यहाँ रहा। इन 17 वर्षों में उसने भारत का काफी प्रवास किया, पूर्व भारत, पश्चिम भारत, उत्तर भारत, दक्षिण भारत में गया।

अपने 17 साल के प्रवास के बाद वो इंग्लैंड गया और इंग्लैंड की पार्लियामेंट ‘हाउस ऑफ कोमेन्स’ में उसने 2 फ़रवरी 1835 को ब्रिटिश संसद में एक लंबा भाषण दिया। उसने कहा था :

Thomas Babington Macaulay said:

 

“ I have traveled across the length and breadth of India and have not seen one person who is a beggar, who is a thief.

Such wealth I have seen in this country, such high moral values, and people of such a high caliber, that I do not think we would ever conquer this country, unless we break the very backbone of this nation, which is based on her spiritual and cultural heritage.

Therefore, I propose that we should replace their old and ancient education system, their culture. If the Indians will think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will lose their self esteem, their native culture and they will become what we want them, a truly dominated nation. ”

इसी भाषण के अंत में मैकाले भारत का इतिहास सम्बंधित जानकारी देते हुवे एक वाक्य और कहता है :

थॉमस बैबिंगटन मैकाले कहता है  “भारत में जिस व्यक्ति के घर में भी मैं कभी गया, तो मैंने देखा की वहाँ सोने के सिक्कों का ढेर ऐसे लगा रहता हैं, जैसे की चने का या गेहूं का ढेर किसानों के घरों में रखा जाता है ।

भारतवासी इन सिक्को को कभी गिन नहीं पाते क्योंकि गिनने की फुर्सत नही होती है इसलिए वो तराजू में तौलकर रखते हैं। किसी के घर में 100 किलो, किसी  के यहा 200 किलो और किसी के यहाँ 500 किलो सोना है, इस तरह भारत के घरों में सोने का भंडार भरा हुआ है।”

2.  इससे भी बड़ा एक दूसरा प्रमाण मैं आपको देता हूँ । एक अंग्रेज़ इतिहासकर हुआ उसका नाम था “विलियम डिगबी”। यह बहुत बड़ा इतिहासकर था, सभी यूरोपीय देशों में इसको काफी इज्ज़त और सम्मान दिया जाता है। अमेरिका में भी इसको बहुत सम्मान दिया जाता है, कारण ये है कि इसके बारे में कहा जाता है कि  यह  बिना प्रमाण के कोई बात नही कहता और बिना दस्तावेज़/ सबूत के वो कुछ नहीं लिखता है।

 

इस डिगबी ने भारत के बारे में एक पुस्तक में लिखा है, जिसका कुछ अंश मैं आपको बताता हूँ। ये बात वो 18वीं शताब्दी में कहता है:

विलियम डिगबी कहता है कि “अंग्रेजों के पहले का भारत विश्व का सर्वसंपन्न कृषि प्रधान देश ही नहीं बल्कि एक ‘सर्वश्रेष्ठ औद्योगिक और व्यापारिक देश’ भी था। भारत की भूमि इतनी उपजाऊ है, जितनी दुनिया के किसी देश में नहीं। भारत के व्यापारी इतने होशियार हैं जो दुनिया के किसी देश में नहीं।

भारत के कारीगर जो हाथ से कपड़ा बनाते हैं उनका बनाया हुआ कपड़ा रेशम का तथा अन्य कई वस्तुएं पूरे विश्व के बाज़ार में बिक रही हैं और इन वस्तुओं को भारत के व्यापारी जब बेचते हैं तो बदले में वो सोना और चाँदी की मांग करते हैं, जो सारी दुनिया के दूसरे व्यापारी आसानी के साथ भारतवासियों को दे देते हैं।

भारत देश में इन वस्तुओं के उत्पादन के बाद की बिक्री की प्रक्रिया है वो दुनिया के दूसरे बाज़ारों पर निर्भर है और ये वस्तुएं जब दूसरे देशों के बाज़ारों में बिकती हैं तो भारत में सोना और चाँदी ऐसे प्रवाहित होता है जैसे नदियों में पानी प्रवाहित होता है और भारत की नदियों में पानी प्रवाहित होकर जैसे महासागर में गिर जाता है वैसे ही दुनिया की तमाम नदियों का सोना चाँदी भारत में प्रवाहित होकर भारत के महासागर में आकार गिर जाता है।

दुनिया के देशों का सोना चाँदी भारत में आता तो है, लेकिन भारत के बाहर 1 ग्राम सोना और चाँदी कभी जाता नहीं है। इसका कारण वो बताता है की भारतवासी दुनिया में सारी वस्तुओं उत्पादन करते हैं लेकिन वो कभी किसी से खरीदते कुछ नहीं हैं।”

इसका मतलब हुआ की आज से 300 साल पहले का भारत निर्यात प्रधान देश था। एक भी वस्तु हम विदेशों से नहीं खरीदते थे।

 

3.  एक और बड़ा इतिहासकार हुआ वो फ़्रांस का था, उसका नाम है “फ़्रांसवा पिराड”। इसने 1711 में भारत का इतिहास सम्बंधित स्वर्णिम काल की जानकारी देते हुवे एक बहुत बड़ा ग्रंथ लिखा है और उसमे उसने सैकड़ों प्रमाण दिये हैं।
फ़्रांसवा पिराड अपनी पुस्तक में लिखता है कि  “भारत देश में मेरी जानकारी में 36 तरह के ऐसे उद्योग चलते हैं जिनमें उत्पादित होने वाली हर वस्तु विदेशों में निर्यात होती है।  भारत के सभी शिल्प और उद्योग उत्पादन में सबसे उत्कृष्ट, कला पूर्ण और कीमत में सबसे सस्ते हैं।

 

सोना, चाँदी, लोहा, इस्पात, तांबा, अन्य धातुएं, जवाहरात, लकड़ी के सामान, मूल्यवान, दुर्लभ पदार्थ इतनी ज्यादा विविधता के साथ भारत में बनती हैं जिनके वर्णन का कोई अंत नहीं हो सकता।  मुझे जो प्रमाण मिलें हैं उनसे ये पता चलता है की भारत का निर्यात दुनिया के बाज़ारों में पिछले ‘3 हज़ार वर्षों’ से आबादीत रूप से बिना रुके हुए लगातार चल रहा है।”
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4. इसके बात एक स्कॉटिश है जिसका नाम है ‘मार्टिन’ वो भारत का इतिहास सम्बंधित पुस्तक में भारत के बारे में कहता है:

“ब्रिटेन के निवासी जब बर्बर और जंगली जानवरों की तरह से जीवन बिताते रहे तब भारत में दुनिया का सबसे बेहतरीन कपड़ा बनता था और सारी दुनिया के देशों में बिकता था।

मुझे यह स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं है कि भारतवासियों ने सारी दुनिया को कपड़ा बनाना और कपड़ा पहनना सिखाया है ।

हम अंग्रेजों ने और अंग्रेजों की सहयोगी जातियों के लोगों ने भारत से ही कपड़ा बनाना सीखा है और पहनना भी सीखा है। रोमन साम्राज्य में जीतने भी राजा और रानी हुए हैं वो सभी भारत के कपड़े मगाते रहे हैं, पहनते रहे हैं और उन्हीं से उनका जीवन चलता रहा है।”

5. एक फ्रांसीसी इतिहासकार है उसना नाम है ‘टैवरणीय’ । सन 1750 में भारत का इतिहास सम्बंधित जानकारी देते हुवे वो कहता है:
“भारत के वस्त्र इतने सुंदर और इतने हल्के हैं की हाथ पर रखो तो पता ही नहीं चलता है की उनका वजन कितना है। सूत की महीन कताई मुश्किल से नज़र आती है, भारत में कालीकट, ढाका, सूरत, मालवा में इतना महीन कपड़ा बनता है कि पहनने वाले का शरीर ऐसा दिखता है की मानो वो एकदम नग्न है। वो कहता है इतनी अदभूत बुनाई भारत के करीगर जो हाथ से कर सकते हैं वो दुनिया के किसी भी देश में कल्पना करना संभव नहीं है।”
6. इसके बाद एक अंग्रेज़ है ‘विलियम वोर्ड’ । भारत का इतिहास सम्बंधित स्वर्णिम काल की जानकारी देते हुवे उन्होंने लिखा है कि

“भारत में मलमल का उत्पादन विलक्षण है । यह भारत के कारीगरों के हाथों का कमाल है। जब इस मलमल को घास पर बिछा दिया जाता है और उस पर ओस की कोई बूंद गिर जाती है तो वो दिखाई नहीं देती है क्योंकि ओस की बूंद में जितना पतला रंग होता है उतना ही हल्का वो कपड़ा होता है । इसलिए ओस की बूंद और कपड़ा आपस में मिल जाते हैं।

भारत का 13 गज का एक लंबा कपड़ा हम चाहें तो एक चोटी सी अंगूठी में से पूरा खींचकर बाहर निकाल सकते हैं । इतनी बारीक और इतनी महीन बुनाई भारत के कपड़ों की होती है। भारत का 15 गज का लंबा थान उसका वजन 100 ग्राम से भी कम होता है। मैंने बार बार भारत के कई थान का वजन किया है हरेक थान का वजन 100 ग्राम से भी कम निकलता है। हम अंग्रेजों ने कपड़ा बनाना तो सन् 1780 के बाद शुरू किया है भारत में तो पिछले 3,000 साल से कपड़े का उत्पादन होता रहा है और सारी दुनिया में बिकता रहा है।”

7. एक और अंग्रेज़ अधिकारी था ‘थॉमस मुनरो’ वो मद्रास में गवर्नर रहा है। जब वो गवर्नर था तो भारत के किसी राजा ने उसको शॉल भेंट में दिया था । जब वो नौकरी पूरी करके भारत से वापस गया तो लंदन की संसद में सन् 1813 में उसने अपना बयान दिया। वो कहता है:

“भारत से मैं एक शॉल लेकर के आया, उस शॉल को मैं 7 वर्षों से उपयोग कर रहा हूँ, उसको कई बार धोया है और प्रयोग किया है उसके बाद भी उसकी क्वालिटी एकदम बरकरार है और उसमे कहीं कोई सिकुड़न नहीं है।

मैंने पूरे यूरोप में प्रवास किया है एक भी देश ऐसा नहीं है जो भारत की ऐसी क्वालिटी की शॉल बनाकर दे सके। भारत ने अपने वस्त्र उद्योग में सारी दुनिया का दिल जीत लिया है और भारत के वस्त्र अतुलित और अनुपमेय मानदंड के हैं जिसमे सारे भारतवासी रोजगार पा रहे हैं।”

इस तरह से लगभग 200 से अधिक इतिहासकारों ने भारत के बारे में यही कहा है कि भारत के उद्योगों का, भारत की कृषि व्यवस्था का, भारत के व्यापार का सारी दुनिया में कोई मुक़ाबला नहीं है।

 

8. अंग्रेजों की संसद में भारत के बारे में समय समय पर बहस होती रही है। सन् 1813 में अंग्रेजों की संसद में बहस हो रही थी की भारत की आर्थिक स्थिति क्या है ? उसमें एक अंग्रेजी सांसद ने कई सारी रिपोर्ट और सर्वेक्षणों के आधार पर एक बयां दिया था जो हमें भारत का इतिहास सम्बंधित स्वर्णिम काल की जानकारी देता है । उन्होंने कहा था कि :

“सारी दुनिया में जो कुल उत्पादन होता है उसका 43% उत्पादन अकेले भारत में होता है और दुनिया के बाकी 200 देशों में कुल मिलाकर 57% उत्पादन होता है।

सारी दुनिया के व्यापार में भारत का हिस्सा लगभग 33% है। और सारी दुनिया की जो कुल आमदनी है, उस आमदनी का लगभग 27% हिस्सा अकेले भारत का है।”

ये आंकड़ा उस अंग्रेज द्वारा उनकी संसद में 1835 में और 1840 में दिया गया था । इन आंकड़ों को अगर आज के समय में देखा जाए तो अमेरिका का उत्पादन सारी दुनिया के उत्पादन का 25% है, चीन का 23% है।

सोचिए आज से लगभग पौने दो सौ साल पहले तक चीन और अमेरिका के कुल उत्पादन को मिलाकर लगभग उससे थोड़ा कम उत्पादन भारत अकेले करता था। इतना बड़ा उत्पादक देश था हमारा भारत। सोचिये सारी दुनिया के व्यापार में भारत का हिस्सा लगभग 33% था।

मतलब पूरी दुनिया में जो निर्यात होता था उसमे 33% अकेले भारत का होता था और ये आंकड़ा अंग्रेजों ने 1840 तक दिया है। इसी तरह जैसा कि उन्होंने आगे कहा था कि  “सारी दुनिया की जो कुल आमदनी है, उस आमदनी का लगभग 27% हिस्सा अकेले भारत का है।

तो सोचिए कि सन् 1840 तक भारत एक कैसा अदभूत उत्पादक, निर्यातक और व्यापारी देश रहा है। 1840 तक सारी दुनिया का जो निर्यात था उसमें अमेरिका का निर्यात 1% से भी कम हैं, ब्रिटेन का निर्यात 0.5% से भी कम है और पूरे यूरोप और अमेरिका के सभी देशों को मिलाकर उनका निर्यात दुनिया के निर्यात का 3-4% है।

1840 तक यूरोप और अमेरिका के 27 देश मिलकर 3-4% निर्यात करते थे और भारत अकेले 33% निर्यात करता था। उन सभी 27 देशों का उस समय उत्पादन 10-12% था और भारत का अकेले उत्पादन 43% था और ये 27 देशों को इकट्ठा कर दिया जाए तो 1840 तक उनकी कुल आमदनी दुनिया की आमदनी में 4-4.5% थी और भारत की आमदनी अकेले 27% थी। तो ऐसा था हमारे भारत का इतिहास का स्वर्णिम काल ।

 

9.  भारत का इतिहास सम्बंधित स्वर्णिम काल की चर्चा करते हुवे अब थोड़ी बात भारत की शिक्षा व्यवस्था, तकनीकी और कृषि व्यवस्था की भी कर लेते हैं ।

उद्योगों के साथ भारत विज्ञान और तकनीक में भी काफी विकसित था। भारत के विज्ञान और तकनीक के बारे में दुनिया भर के अंग्रेजों ने बहुत सारी पुस्तकें लिखी हैं।

ऐसा ही दो अंग्रेज़ थे  ‘जी॰डबल्यू॰लिटनर’ और ‘थॉमस मुनरो’ ।  इन दोनों ने भारत की शिक्षा व्यवस्था पर बहुत अध्ययन किया था।

एक अंग्रेज़ है ‘पेंडुरकास्ट’ उसने भारत की तकनीक और विज्ञान पर बहुत अध्ययन किया और एक दुसरे अंग्रेज़ हुवे है ‘केंमवेल’ उन्होंने ने  भी भारत की तकनीक और विज्ञान पर बहुत अध्ययन किया था।

केंमवेल ने 1842 में कहा है: “अगर किसी देश में उत्पादन सबसे अधिक होता है तो यह तभी संभव है जब वहाँ पर कारखाने हो ।और कारखाने तभी संभव हैं जब वहाँ पर टेक्नालजी हो । और टेक्नालजी किसी देश में तभी संभव है जब वहाँ पर विज्ञान हो । और विज्ञान किसी देश में मूल रूप से शोध के लिए प्रस्तुत  होता है तभी तकनीकी का निर्माण होता है।

18 वीं शताब्दी तक इस देश में इतनी बेहतरीन टेक्नालॉजी रही है स्टील/लोहा/इस्पात बनाने की वो दुनिया में कोई कल्पना नही कर सकता। भारत का बनाया हुआ लोहा/इस्पात सारी दुनिया में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। इंग्लैंड या यूरोप में जो अच्छे से अच्छा लोहा या स्टील बनता है वो भारत के घटिया से घटिया लोहे या स्टील का भी मुक़ाबला नही कर सकता।”

एक ‘जेम्स फ़्रेंकलिन’ नामके अंग्रेज़ थे जो धातुकर्मी विशेषज्ञ थे। उन्होंने भारत का इतिहास सम्बंधित स्वर्णिम काल की जानकारी देते हुवे कहा  है कि :

“भारत का स्टील दुनिया में सर्वश्रेष्ठ है। भारत के कारीगर स्टील को बनाने के लिए जो भट्टियाँ तैयार करते हैं वो दुनिया में कोई नही बना पाता। इंग्लैंड में लोहा बनाना तो हमने 1825 के बाद शुरू किया भारत में तो लोहा 10 वीं शताब्दी से ही हजारों हजारों टन में बनता रहा है और दुनिया के देशों में बिकता रहा है।

मैं 1764 में भारत से स्टील का एक नमूना ले के आया था, मैंने इंग्लैंड के सबसे बड़े विशेषज्ञ डॉ॰ स्कॉट को वह स्टील का टुकड़ा दिया था और उनको कहा था की लंदन रॉयल सोसाइटी की तरफ से आप इसकी जांच कराइए। डॉ॰ स्कॉट ने उस स्टील की जांच कराने के बाद कहा की ये भारत का स्टील इतना अच्छा है कि सर्जरी के लिए बनाए जाने वाले सारे उपकरण इससे बनाए जा सकते हैं, जो दुनिया में किसी देश के पास उपलब्ध नहीं हैं।

मुझे तो ऐसा लगता है कि भारत के ये स्टील अगर हम पानी में भी डालकर रखे तो इसमे कभी जंग नही लगेगा क्योंकि इसकी क्वालिटी बहुत अच्छी है।”

10.  एक दुसरे अंग्रेज़ हुवे है लेफ्टिनेंट कर्नल ए वॉकर । उन्होंने भारत की शिपिंग इंडस्ट्री पर सबसे ज्यादा शोध किया है। भारत का इतिहास सम्बंधित स्वर्णिम काल की जानकारी देते हुवे वो कहते हैं कि:

“भारत का जो अदभूत लोहा/ स्टील है वो जहाज बनाने के काम में सबसे ज्यादा आता है। दुनिया में जहाज बनाने की सबसे पहली कला और तकनीकी भारत में ही विकसित हुई है और दुनिया के देशों ने पानी के जहाज बनाना भारत से सीखा है।

भारत एक विशाल देश है जहां दो लाख ऐसे गाँव हैं, जो समुद्र के किनारे स्थापित है । इन सभी गाँव में जहाज बनाने का काम पिछले हजारों वर्षों से चलता आ रहा है। हम अंग्रेजों को अगर जहाज खरीदना हो तो हम भारत में जाते है और जहाज खरीद कर लाते हैं। ईस्ट इंडिया कंपनी के जितने भी पानी के जहाज दुनिया में चल रहे हैं ये सारे के सारे जहाज भारत की स्टील से बने हुए हैं ।

ये बात मुझे कहते हुए शर्म आती है कि हम अंग्रेज़ अभी तक इतनी अच्छी क्वालिटी का स्टील बनाना नही शुरू कर पाये हैं जैसा भारत में बनते है । भारत का कोई पानी का जहाज जो 50 साल चल चुका है उसको हम खरीद कर ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में लगाएँ तो 50 साल भारत में चलने के बाद भी वो हमारे यहाँ 20-25 साल और चल जाता है ।

इतनी मजबूत पानी के जहाज बनाने की कला और टेक्नालजी भारत के कारीगरों के हाथ में है। हम जितने धन में 1 नया पानी का जहाज बनाते हैं उतने ही धन में भारतवासी 4 नए जहाज पानी के बना लेते हैं। हम भारत से पुराने पानी के जहाज खरीदें और उसको ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में लगाएँ यही हमारे लिए अच्छा है।

भारत में तकनीक के द्वारा ईंट बनती है, ईंट से ईंट को जोड़ने का चूना बनता है उसके अलावा 36 तरह के दूसरे इंडस्ट्री हैं। इन सभी उद्योगों में भारत दुनिया में सबसे आगे है, इसलिए हमें भारत से व्यापार करके ये सब तकनीकी लेनी है और इन सबको इंग्लैंड में लाकर फिर से पुन: उत्पादित करना चाहिए ।”

11.  भारत के विज्ञान के बारे में बीसियों अंग्रेजों ने शोध किया है । प्रायः सभी यह कहते हैं कि भारत में विज्ञान की 20 से ज्यादा शाखाएँ हैं, जो बहुत ज्यादा पुष्पित और पल्लवित हुई है। उनमें से सबसे बड़ी शाखा है खगोल विज्ञान, दूसरी नक्षत्र विज्ञान, तीसरी बर्फ बनाने का विज्ञान, चौथी धातु विज्ञान, भवन निर्माण का विज्ञान ऐसी 20 तरह की वैज्ञानिक शाखाएँ पूरे भारत में हैं।

इस संबंद्ध में वॉकर ने लिखा है कि “भारत में ये जो विज्ञान की ऊंचाई है वो इतनी अधिक है इसका अंदाज़ा हम अंग्रेजों को नहीं लगता।”

एक दुसरे यूरोपीय वैज्ञानिक थे कॉपरनिकस । उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने ही पहली बार बताया था कि सूर्य का पृथ्वी के साथ क्या संबंध है । उन्होंने पहली बार सूर्य से पृथ्वी की दूरी का अनुमान लगाया और जिसने सूर्य से दूसरे उपग्रहों के बारे में जानकारी सारी दुनिया को दी।

इस कॉपरनिकस की बात को काटते हुवे वॉकर कहते हैं कि कॉपरनिकस का दावा असत्य है। वॉकर आगे कहते हैं  कि अंग्रेजों के हजारों साल पहले भारत में ऐसे विशेषज्ञ वैज्ञानिक हुए हैं जिनहोने पृथ्वी से सूर्य का ठीक ठीक पता लगाया है और भारत के शास्त्रों में उसको दर्ज़ कराया है।

यजुर्वेद में ऐसे बहुत सारे श्लोक हैं जिनसे खगोल शास्त्र का ज्ञान मिलता है। कॉपरनिकस का जिस दिन जन्म हुआ था यूरोप में, उससे ठीक एक हज़ार साल पहले एक भारतीय वैज्ञानिक “श्री आर्यभट्ट जी” ने पृथ्वी और सूर्य की दूरी बिलकुल ठीक ठीक बता दी थी और जितनी दूरी आर्यभट्ट जी ने बताई थी उसमे कॉपरनिकस एक इंच भी इधर उधर नही कर पाया। वही दूरी आज अमेरिका और यूरोप में मानी जाती है।

भारत में खगोल विज्ञान इतना उन्नत और गहरा था कि इसी से नक्षत्र विज्ञान का विकास हुआ। भारतीय वैज्ञानिकों ने ही दिन और रात की लंबाई, समय के आंकड़े निकाले है और सारी दुनिया में उनका प्रचार हुआ है। ये जो दिनों की हम गिनती करते हैं रविवार, सोमवार इन सभी दिनों का नामकरण और अवधि पूरी की पूरी महान महर्षि आर्यभट्ट की निकाली हुई है और उनके द्वारा ही ये दिन तय किए हुए हैं।

अंग्रेज़ इस बात को स्वीकार करते हैं कि भारत के दिनों को ही उधार लेकर हमने सनडे, मंडे बनाया है। पृथ्वी अपनी अक्ष और सूर्य के चारों ओर घूमती है ये बात सबसे पहले 10 वीं शताब्दी में भारतीय वैज्ञानिकों ने प्रमाणित की थी। पृथ्वी के घूमने से दिन रात होते हैं, मौसम और जलवायु बदलते हैं, ये बात भी सारी दुनिया में भारतीय वैज्ञानिकों के द्वारा प्रमाणित हुई है । सूर्य के कितने उपग्रह हैं और उनका सूर्य के साथ अंतरसंबंध क्या है, ये सारी खोज भारत में तीसरी शताब्दी में हुई थी जब दुनिया में कोई पढ़ना लिखना भी नहीं जानता था।

 

12.  एक दुसरे अंग्रेज़ हुवे है ‘डेनियल डिफ़ों’ । भारत का इतिहास सम्बंधित स्वर्णिम काल की जानकारी देते हुवे उन्होंने कहा है कि: “भारत के वैज्ञानिक गणित में इतने  ज्यादा पक्के हैं  कि चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण का ठीक ठीक समय बता देते हैं वो भी सालों पहले से ।”

1708 में लंदन की संसद में  भारत का इतिहास सम्बंधित जानकारी देते हुवे ‘डेनियल डिफ़ों’ ने कहा है कि ‘मैंने भारत का पंचांग जब भी पढ़ा है मुझे एक प्रश्न का उत्तर कभी नही मिला की भारत के वैज्ञानिक कई कई साल पहले कैसे पता लगा लेते हैं की आज चन्द्र ग्रहण पड़ेगा, आज सूर्य ग्रहण पड़ेगा और इस समय पर पड़ेगा और सही सही उसी समय पर पड़ता है।’ इसका मतलब भारत के वैज्ञानिकों की खगोल और नक्षत्र विज्ञान में बहुत गहरी शोध है। ”

 

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13. भारतीय शिक्षा के बारे में जर्मन दार्शनिक ‘मैक्स मूलर’ ने सबसे ज्यादा शोध किया है। उन्होंने कहा है कि :
“मैं भारत की शिक्षा व्यवस्था से इतना प्रभावित हूँ शायद ही दुनिया के किसी देश में इतनी सुंदर शिक्षा व्यवस्था होगी जो भारत में है। भारत के बंगाल प्रांत में मेरी जानकारी के अनुसार 80 हज़ार से ज्यादा गुरुकुल पिछले हजारों साल से सफलता के साथ चल रहे हैं।”

एक दुसरे अंग्रेज़ शिक्षाशास्त्री, विद्वान थे  ‘लुडलो’। उन्होंने भारत का इतिहास सम्बंधित जानकारी देते हुवे 18वीं शताब्दी में कहा था कि “भारत में एक भी गाँव ऐसा नहीं है जहां कम से कम एक गुरुकुल नहीं है, और भारत के एक भी बच्चे ऐसे नहीं हैं जो गुरुकुल में न जाते हो पढ़ाई के लिए।”

इसके अलावा एक दुसरे अंग्रेज़ शिक्षाविद “जी॰डबल्यू॰ लिटनर” कहते हैं कि “मैंने भारत के उत्तरी इलाके का सर्वेक्षण किया है और मेरी रिपोर्ट कहती है कि भारत में 200 लोगों पर एक गुरुकुल चलता है।”

इसी तरह थॉमस मुनरो कहता है कि ” दक्षिण भारत में 400 लोगों पर कम से कम एक गुरुकुल भारत में है।”

अगर इन दोनों मह्नुभावो के आंकड़े मिला दिए जाए तो भारत में उस समय औसतन  300 लोगों पर एक गुरुकुल चलता था और जिस जमाने के ये आंकड़े है तब भारत की जनसंख्या लगभग 20 करोड़ थी। यानि कि सन् 1822 के आसपास सम्पूर्ण भारत देश में 7,32,000 गुरुकल थे। सन् 1822 में भारत के कुल गाँवों कि संख्या भी लगभग 7,32,000 थी, इसका मतलब लगभग भारत के हर गाँव में एक गुरुकुल था।

वहीं अंग्रेजों के इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि  सन् 1868 तक पूरे इंग्लैंड में सामान्य बच्चों को पढ़ाने के लिए एक भी स्कूल नहीं था।

यानी कि हमारी शिक्षा व्यवस्था अंग्रेजों से बहुत बहुत आगे थी। सबसे अच्छी बात यह थी कि इन गुरुकुलों को चलाने के लिए कभी भी किसी राजा से कोई दान और अनुदान नहीं लिया जाता था। ये सारे गुरुकुल समाज के द्वारा चलाये जाते थे।

भारत का इतिहास सम्बंधित स्वर्णिम काल पर लिखते हुवे ‘जी॰डबल्यू॰ लिटनर’ की रिपोर्ट कहती है कि सन 1822 में सम्पूर्ण भारत में 97% साक्षरता की दर थी । हमारे प्राचीन गुरुकुलों में पढ़ाई का समय होता था सूर्योदय से सूर्यास्त तक। इतने समय में वो 18 विषय पढ़ाते थे,  जिसमें वो गणित/ वैदिक गणित, खगोल शास्त्र , नक्षत्र विज्ञान, धातु विज्ञान, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, शौर्य विज्ञान जैसे लगभग 18 विषय पढ़ाये जाते थे।

एक और अंग्रेज़ अधिकारी ‘पेंडरगास्ट’ भारत का इतिहास सम्बंधित जानकारी देते हुवे लिखता है कि:

“जब कोई बच्चा भारत में 5 साल, 5 महीने और 5 दिन का हो जाता था बस उसी दिन उसका गुरुकुल में प्रवेश हो जाता था और लगातार 14 वर्ष तक वो गुरुकुल में पढ़ता था। इसके बाद जिसको विशेषज्ञता हासिल करनी होती थी उसके लिए उच्च शिक्षा के केंद्र भी थे।

भारत में शिक्षा इतनी आसान है की गरीब हो या अमीर सबके लिए शिक्षा समान है और व्यवस्था समान है। उदाहरण: भगवान श्रीकृष्ण जिस गुरुकुल में पढे थे, उसी में सुदामा भी पढे थे, एक करोड़पति का बेटा और एक गरीब  का सभी के लिए समान शिक्षा ब्यवस्था उपलब्द्ध थी ।”

अब चलिए, उस समय कि उपलब्द्ध शिक्षा ब्यवस्था कि तुलना आज की  शिक्षा ब्यवस्था से करते हैं ।

जबकि 2009 तक भारत में सरकार द्वारा लाखों करोड़ों खर्च करने के बाद 13,500 विद्यालय और 450 विश्वविद्यालय हैं। 1822 में अकेले मद्रास प्रांत (उस जमाने का कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडू) में 11,575 विद्यालय और 109 विश्वविद्यालय थे। इसके बाद मुंबई प्रांत, पंजाब प्रांत और नॉर्थ वेस्ट फ़्रोंटिएर चारों स्थानों को मिला दिया जाए तो भारत में लगभग 14,000+ विद्यालय और 500-525 विश्वविद्यालय थे। जिसमें इंजीनियरिंग, सर्जरी, मैडिसिन, आयुर्वेद, प्रबंधन सबके लिए अलग अलग विद्यालय और विश्वविद्यालय थे।

तक्षशिला, नालंदा जैसे 500 से ज्यादा विश्वविद्यालय भारत में शिक्षा फैलाने के काम में लगे हुवे थे।जबकि पूरे यूरोप में ‘सामान्य लोगों के लिए शिक्षा व्यवस्था’ सबसे पहले इंग्लैंड में 1868 में आयी। इससे पहले जो स्कूल थे वो सिर्फ राजाओं के बच्चों के लिए थे जो उनके ही महल में चला करते थे। साधारण लोगों को उनमे प्रवेश नहीं मिलता था।

यूरोप के दार्शनिकों का मानना था कि आम लोगों को तो गुलाम बनके रहना है उसको शिक्षित होने से कोई फायदा नहीं। इस संबंद्ध में अरस्तू और सुकरात दोनों कहते हैं कि “सामान्य लोगों को शिक्षा नहीं देनी चाहिए, शिक्षा सिर्फ राजा और अधिकारियों के बच्चों को देनी चाहिए” इसलिए सिर्फ उनके लिए ही विद्यालय होते थे।

तो ऐसा वैभव पूर्ण था स्वर्णिम भारत का इतिहास । जिसकी बराबरी में यूरोप के कोई भी देश कहीं भी दूर दूर तक नहीं टिकते थे ।

14.  भारत में कृषि व्यवस्था के बारे में “लेस्टर” नाम का एक अंग्रेज़ ब्रिटिश संसद में भाषण देते हुवे कहता है कि

“भारत में कृषि उत्पादन दुनिया में सर्वोच्च है। भारत में एक एकड़ में सामान्य रूप से 56 कुंटल धान पैदा किया जाता है। यह उत्पादन औसतन है। भारत के कुछ इलाकों में तो 70 से 75 कुंटल धान पैदा किया जाता  है । जब कि  कुछ इलाकों में इससे कम 45 से 50 कुंटल धान पैदा होता है।

भारत में एक एकड़ में सामान्य रूप से 120 मीट्रिक टन गन्ना पैदा होता है। कपास का उत्पादन सारी दुनिया में सबसे ज्यादा भारत में है।”

 उस समय की तुलना अगर आज के भारत से करें तो पता चलता है कि आज भारत में “यूरिया, डीएपी, फॉस्फेट” आदि डालने के बाद औसतन एक एकड़ में 30 कुंटल से ज्यादा धान पैदा नहीं होता है। जबकि 150 साल पहले सिर्फ गाय के गोबर और गौमूत्र की खाद से एक एकड़ में औसतन 56 कुंटल धान पैदा होता था। आज भारत में “यूरिया, डीएपी, फॉस्फेट” के बोरे के बोरे डालने के बाद एक एकड़ में औसतन उत्पादन मात्र 30-35 मीट्रिक टन ही है।

भारत का इतिहास का वैभवपूर्ण बर्णन करते हुवे एक और अंग्रेज़ कहता है कि : “भारत में फसलों की विविधता दुनिया में सबसे ज्यादा है। भारत में धान के कम से कम 1 लाख प्रजाति के बीज हैं। भारत में दुनिया में सबसे पहला ‘हल’ बना। जो दुनिया को भारत की अदभूत दें है। इसके अलावा खुरपी, खुरपा, हसिया, हथौड़ा, बेल्ची, कुदाल, फावड़ा आदि सब चीज़ें दुनिया में बाद में आई है भारत में ये सैकड़ों साल पहले ही बन चुकी है। बीज को एक पंक्ति में बोने की परंपरा भी हजारों साल पहले भारत में विकसित हुई है।”

ए सारी बाते हमारे भारत का इतिहास सम्बंधित स्वर्णिम काल की वैभव की जानकारी देते हैं, और हमर सिर गर्व से ऊचा उठ जाता है ।

कृषि उत्पादन में आज भी हमारे देश में धान की 50,000 प्रजातियाँ पूरे देश में मौजूद हैं।

दुनिया ने सन् 1750 में खेती करना भारत से ही सीखा था  इससे पहले ये यूरोप के लोग जंगली फलों और पशुओं का शिकार करके उन्हें  खाते रहे और जिन्दा थे ।

जिस समय इंग्लैंड और यूरोप के लोग दो ही चीज़ें खाते थे या तो जंगली फल या मांस, उस समय भारत में 1 लाख किस्म के चावल होते थे, बाकी चीजों की तो बात ही छोड़ दीजिये। हजारों साल तक भारत ने दुनिया को चावल, गुड, दालें उत्पादित करके खिलाई है। और खाने पीने की हजारों चीज़ें दुनियाभर के देश हमसे खरीदते थे और बदले में हमें सोना, चाँदी, हीरे, जवाहरात देते थे।

 

15.  भारत के लोगों का स्वास्थ्य दुनिया में सबसे अदभूत था क्योंकि यहाँ की चिकित्सा व्यवस्था भी दुनिया में सबसे उत्तम थी।

हजारों लाखों जड़ी बूटियाँ और सर्जरी की विद्या पूरी दुनिया को भारत से ही गयी है। भारत में हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडू, केरल इन राज्यों में सर्जरी के सबसे बड़े शोध केंद्र चला करते थे।

जब दुनिया में कोई नहीं जानता था, उस समय आँख में मोतियाबिंद का पहला ऑपरेशन भारत में ही हुआ था । सर्जरी की सबसे आधुनिकम विद्या ‘राइनोंप्लासी’ का सबसे पहला परीक्षण और प्रयोग भी भारत में ही हुआ है। इंग्लैंड की ‘रॉयल सोसाइटी ऑफ सर्जन’ अपने इतिहास में लिखते हैं कि हमने सर्जरी भारत से सीखी है और उसके बाद पूरे यूरोप को हमने ये सर्जरी सिखायी है।

इस प्रकार भारत का इतिहास, चिकित्सा, तकनीक, विज्ञान, उद्योग, व्यपार आदि में दुनिया में शीर्ष पर रहा है और इन सबका श्रेय भारत की शिक्षा व्यवस्था को जाता है, जो दुनिया में सबसे ऊंची थी।

ऐसा अदभूत ‘हमारा भारत’ देश अंग्रेजों के आने से पहले तक था। अंग्रेजों की नीतियों और क़ानूनों के कारण आज हमारी व्यवस्थाओं में बहुत गिरावट आई है।

अंग्रेजों ने सबसे पहले एक ‘इंडियन एडुकेशन एक्ट’ बनाकर भारत के गुरुकुल बंद कर दिए। और फिर उसके बाद उन्होने भारत की वस्तुओं पर ज्यादा से ज्यादा टैक्स लगाकर और विदेशी वस्तुओं को टैक्स फ्री कराकर भारत के कारखाने बंद किए।

भारत का निर्यात खत्म हो गया। भारत की कृषि व्यवस्था को खत्म करने के लिए अंग्रेजों ने किसानों पर लगान लगाना शुरू किया। किसानों की ज़मीनें छीनने के लिए ‘Land Acquisition Act’ बनाया।

फिर किसानों के काम आने वाली गाय और बैल का कत्ल करने के लिए सबसे पहला कत्लखाना कलकत्ता में शुरू किया था , जो आज भी चल रहा है। अंग्रेज़ उस समय 350 गायों का मांसाहार के लिए रोज क़त्ल करते थे, लेकिन आज वहीँ रोज 14,000 गाय रोज कटती हैं।

यह सारी दूषित व्यवस्थाएँ अंग्रेजों की देन हैं। जिसने हमारे स्वर्णिम भारत का इतिहास बदल दिया ।

Reference: Conceptualised from the different lectures of Shri Rajeev Dixit Ji.

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